Sunday, October 14, 2007

हिंद-युग्म पर अगस्त माह में प्रकाशित:दहेज़ का चलन

यूँ तो ये कविता हिंद युग्म पर पहले ही प्रकाशित हो चुकी है, और हो सकता है आप में से कुछ ने पहले पढ़ी हुई हो।परन्तु फिर भी मैं यहाँ भी इसे पोस्ट कर रहा हूँ ताकि मेरे द्वारा रचित कवितायें एक ही जगह मिल जायें।

http://merekavimitra.blogspot.com/2007/08/blog-post_20.html

जी, हमारा लड़का आई.ए.एस है,
2 साल बाहर भी रहकर आया है
इतना खर्चा हुआ,
पढ़ाया-लिखाया
इस काबिल बनाया...
अब आप ही बतायें
पैंतालीस तो, बनते ही हैं न..

लड़की के पिता ने कुछ सोचा, फ़िर बोला
आपने बात तो बिलकुल सही कही है
पर इतना पैसा लगाने की
हमारी औकात नहीं है
लड़की तो हमारी भी इंजीनियर है
पर हम पैंतीस तक ही लगा सकते हैं

लड़के के पिता अपनी बात पर कायम,
कहा,
नहीं नहीं, पैंतालीस से कम
में ये रिश्ता नहीं होगा

लड़की के पिता गिड़गिड़ाये
आखिर में चालीस पर बात मना पाये
मैं भी वहाँ खड़ा था
मिठाई बँटी,
मैंने भी खाई..
पर मन में कुछ और ही चल रहा था...

लड़के को बिकते देखने का
मेरा पहला तजुर्बा जो था...

लड़की के पिता की
आखिर ऐसी क्या मजबूरी है
जो दहेज के लालची लोगों से
रिश्ता कर रहे हैं

बात पता चली,
पड़ोस में पिछले दिनों
एक लड़की की शादी,
एन.आर.आई. खानदान में जो हुई थी

बस,
सारा माजरा समझते देर न लगी
लड़के और लड़की में रिश्ते की
ये तो बस औपचारिकता है
असली रिश्ता तो लालच और घमंड में
कब का हो चुका है...

धन्य है ये समाज,
मेरा समाज हमारा समाज
बुद्धिजीवियों के इस समाज में
पढ़े लिखे दूल्हों का बाज़ार लगता है
हर शख्स बिकता है...हर रिश्ता बिकता है

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